बनिया समाज की राजनीतिक उपेक्षा: कारण केवल राजनीति नहीं, समाज की आंतरिक जड़ता भी है

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में जब कमलापुरी वैश्य बनिया समाज के किसी भी प्रमुख चेहरे को टिकट नहीं मिला, तो समाज में गहरी निराशा और असंतोष की लहर उठी। यह केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं है, बल्कि हमारे समाज के सामूहिक चरित्र का एक आईना भी है। यह स्थिति इस बात की ओर संकेत करती है कि बाहरी उपेक्षा के साथ-साथ हमारी अपनी आंतरिक जड़ता, नेतृत्वहीनता और निष्क्रियता भी उतनी ही जिम्मेदार है।


हमारा समाज आर्थिक रूप से मजबूत, व्यापारिक दृष्टि से सक्षम और ऐतिहासिक रूप से संगठित रहा है। लेकिन जब राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात आती है, तो हमारे पास न तो प्रभावशाली नेतृत्व है, न एकजुट रणनीति, और न ही समाज को जोड़ने वाली कोई दीर्घकालिक योजना। ऐसे में केवल टिकट न मिलने पर आक्रोश जताना पर्याप्त नहीं— अब जरूरत है आत्ममंथन की, कि हम आखिर कहां चूके हैं।

हमें अपने भीतर झांकने की जरूरत है। हमें खुद से कुछ कठिन सवाल पूछने होंगे कि- क्या हमने चुनाव जिताने लायक कोई नेतृत्व तैयार किया है? क्या हमारे समाज में ऐसा चेहरा उभरा है, जिसे जनता पूरे दिल से समर्थन देने को तैयार हो? क्या हमने पिछले वर्षों में ऐसा कोई नेता तैयार किया जो चुनाव जिताने की क्षमता रखता हो? क्या हमने किसी ऐसे नेता को आगे बढ़ाया जो लोगों के बीच अपनी सेवा और संगठन से पहचान बना सका हो?

सच्चाई यह है कि बनिया समाज में वर्षों से नेतृत्व का गंभीर संकट बना हुआ है। राजनीति में टिकट केवल जातीय पहचान के आधार पर नहीं मिलते, बल्कि उस समाज की राजनीतिक तैयारी, नेतृत्व क्षमता और जनसेवा के इतिहास पर निर्भर करता है। सच्चाई यह है कि हमारे समाज में वही पुराने चेहरे, वही सीमित सोच और वही निष्क्रिय ढांचा सालों से बना हुआ है। अब समय है कि समाज ऐसे चेहरों की तलाश करे जो केवल पद संभालने के लिए नहीं, बल्कि व्यवस्था चलाने और विचार आगे बढ़ाने की क्षमता रखते हों।

हमारे जातिगत संगठनों की स्थिति आज भी गंभीर चिंतन की मांग करती है। दशकों से वही कुछ चुनिंदा चेहरे काबिज हैं। कुछ खास लोगों का ही दबदबा कायम है। न कोई कार्यकाल सीमा, न कोई जवाबदेही, न नई पीढ़ी के लिए स्थान। नई सोच और युवा नेतृत्व को दबा दिया जाता है। जो लोग सोच-समझकर समाज के भले के लिए सुझाव देते हैं, उन्हें अक्सर 'राजनीति कर रहा है' या 'विद्रोही' कहकर चुप करा दिया जाता है। इससे सोचने-विचारने वाले लोग धीरे-धीरे सक्रियता छोड़ देते हैं और संगठन के पास केवल ‘हां-में-हां’ कहने वालों की भीड़ बचती है।

ऐसे माहौल में समाज में बदलाव या परिवर्तन की कोई संभावना नहीं रह जाती। संगठन तभी जीवंत बनता है जब उसमें संवाद हो, मतभेदों का सम्मान हो और जवाबदेही तय हो। विचारों की विविधता और विमर्श का स्वागत न होना ही समाज को जड़ बना रहा है। हमें यह मानना होगा कि समाज से आए सलाह-सुझावों पर ध्यान नहीं देना, विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा है। नेतृत्व का मतलब केवल आदेश देना नहीं, बल्कि सुनना और समझना भी है।

हमारा समाज अक्सर तब एकजुट होता है जब महासभा, सम्मेलन या चुनाव नजदीक आते हैं या कोई सामूहिक कार्यक्रम होता है। कुछ दिन जोश रहता है, फिर संवाद ठप, संगठन निष्क्रिय और संबंध कमजोर हो जाते हैं। लेकिन याद रखिए- ऐसी एकता से राजनीतिक ताकत नहीं बनती। ताकत वहां से आती है जहां जवाबदेही तय हो। अगर समाज साल भर सक्रिय रहेगा, मुद्दों पर चर्चा करेगा और योजनाओं पर अमल करेगा, तभी राजनीतिक सम्मान और पहचान संभव है।

सामाजिक सेवा के क्षेत्र में भी बनिया समाज बहुत पीछे है। हमारे पास योग्य डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, सीए, शिक्षक, सरकारी अधिकारी और प्रोफेशनल्स बड़ी संख्या में हैं, लेकिन उनके सामूहिक योगदान के लिए कोई मंच नहीं है। समाज में प्रतिभाएं हैं, पर उन्हें जोड़ने वाला कोई पुल नहीं। प्रोफेशनल लोगों की एक डायरेक्टरी बनाने की जरूरत है, जिसमें समाज के सभी पेशेवरों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि की जानकारी हो। इससे समाज के लोग जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे से जुड़ पाएंगे और सहयोग कर पाएंगे। साथ ही दुनिया को बताने के लिए आपके पास एक डेटा भी होगा कि हमारे समाज में इतने प्रोफेशनल लोग हैं।

यहां यह बात भी समझनी होगी कि पुरानी सोच से नया परिणाम नहीं मिल सकता। कुछ नया सोचिएगा, नया करिएगा- तभी नया परिणाम मिलेगा। अगर समाज आज भी उन्हीं चेहरों, उन्हीं रणनीतियों और उसी निष्क्रियता के साथ आगे बढ़ेगा, तो राजनीतिक प्रतिनिधित्व की उम्मीद व्यर्थ है। बदलाव अब सिर्फ जरूरी नहीं, बल्कि अनिवार्य है। हमें अपने संगठन, संवाद, सोच और कार्यशैली... इन सबको नया स्वरूप देना होगा। तभी समाज की छवि बदलेगी और हमें वह सम्मान और अधिकार मिल सकेगा, जिसके हम वास्तव में हकदार हैं।

हमें यह भी समझना होगा कि राजनीतिक दल उन्हीं समाज को प्रतिनिधित्व देते हैं जो संगठित हो, सक्रिय हो, संवाद में आगे हो और जिनके पास योग्य नेतृत्व हो। अब केवल जाति या संख्या से राजनीति नहीं चलती- आज काम और कौशल ही पहचान बनाते हैं। अगर बनिया समाज को भविष्य में राजनीतिक और सामाजिक पहचान चाहिए, तो उसे अपनी दिशा भीतर से तय करनी होगी। शिकायतें छोड़कर ठोस कदम उठाने होंगे, युवाओं को आगे लाना होगा, नई सोच को स्वीकार करना होगा और संगठन को सक्रिय बनाना होगा। सच ही कहा गया है कि “सोच बदलिए, समाज बदलेगा।
समाज बदलेगा, तो राजनीति खुद दरवाजा खटखटाएगी।”


-हितेन्द्र गुप्ता 

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